युवा दिवस पर स्‍वामी जी के रोचक किस्‍से



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नई दिल्ली. स्वामी विवेकानंद का 125 साल पहले, 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्वधर्म सम्मेलन में दिया गया भाषण जितना प्रसिद्ध और प्रेरणादायक है, उतनी ही दिलचस्प है उनकी शिकागो यात्रा की कहानी. उनकी इस यात्रा के पीछे महज एक सपना था। शिकागो यात्रा से पहले ज्ञान प्राप्ति के लिए वह दक्षिण भारत गए थे. उनके दक्षिण भारत पहुंचने की कहानी भी बेहद रोचक है. 

  1. विवेकानंद की ईश्वर खोज

बालक नरेंद्र (विवेकानंद) बचपन से ही मेधावी और स्वतंत्र विचारों के धनी थे। उस वक्त दक्षिणेश्वर, पश्चिम बंगाल में मां काली के उपासक और प्रख्यात गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस थे। उन्हें ईश्वर प्राप्त माना जाता है। विवेकानंद अपने नाना के मकान में अकेले रहकर एफए की पढ़ाई कर रहे थे। इसी दौरान श्रीरामकृष्ण परमहंस उस मोहल्ले में अपने एक भक्त के यहां रुके थे। उनके आने पर वहां सत्संग हो रहा था। भजन के लिए विवेकानंद को बुलाया गया था। उनका गीत सुनकर रामकृष्ण बहुत प्रभावित हुए। कार्यक्रम समाप्त होने पर उन्होंने विवेकानंद से कहा कि वह दक्षिणेश्वर आएं।

एक दिन माघ की सर्दी में विवेकानंद ईश्वर के बारे में चिंतन कर रहे थे। उन्हें विचार आया कि रवींद्रनाथ टैगोर के पिता देवेंद्रनाथ ठाकुर गंगा नदी में नाव पर बैठकर साधना करते हैं, लिहाजा उन्हीं से ईश्वर के बारे में पूछा जाए। वो तुरंत गंगा घाट गए और तैरकर उनकी नाव में जा पहुंचे। उन्होंने महर्षि से पूछा आप पवित्र गंगा में रहकर इतने समय से साधना कर रहे हैं, क्या आपको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। महर्षि ने उनके सवाल का कोई सही जवाब नहीं दिया। इससे विवेकानंद थोड़ा विचलित हो गए। उन्हें लगा जब देवेंद्रनाथ ठाकुर जैसे महर्षि को ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ तो उनकी क्या हैसियत।

इस घटना के अगले दिन विवेकानंद के जहन में रामकृष्ण देव की याद आई, जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि उन्होंने मां काली समेत कई देवी-देवताओं का साक्षात्कार किया है। लिहाजा विवेकानंद उनसे मिलने के लिए दक्षिणेश्वर चल दे। दक्षिणेश्वर पहुंचकर विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस से भी पूछा कि क्या उन्होंने कभी ईश्वर को देखा है। इस पर परमहंस ने कहा ‘हां, देखा है और तुम्हे भी दिखा सकता हूं’। इसके बाद 1881 से 1886 तक विवेकानंद ने रामकृष्ण के शिष्य के रूप में दक्षिणेश्वर में साधना की।

  1.  दक्षिण से पूरा होगा ज्ञान

बताया जाता है कि रामकृष्ण परमहंस ने ही विवेकानंद से कहा था कि जब तक वह दक्षिण नहीं जाएंगे, उनका ज्ञान पूरा नहीं होगा। गुरु के इस कथन पर विवेकानंद ने दक्षिण भारत की यात्रा की। उनकी शिकागो यात्रा में भी दक्षिण का अहम योगदान है। बताया जाता है कि दक्षिण गुजरात के काठियावाड़ के लोगों ने सबसे पहले विवेकानंद से शिकागों में आयोजित होने वाले विश्वधर्म सम्मेनल में जाने का आग्रह किया था। इसके बाद जब वह चेन्नई लौटे तो उनके शिष्यों ने भी उनसे यही निवेदन किया था। खुद विवेकानंद ने लिखा था कि तमिलनाडु के राजा भास्कर सेतुपति ने पहली बार उन्हें धर्म सम्मेलन में जाने का विचार दिया था। इसके बाद विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे। उन्हें ध्यान लगाने के लिए किसी एकांत स्थल की तलाश थी। लिहजा वह समुद्र में तैरकर भारत के उस अंतिम चट्टान तक पहुंच गए, जिसे आज विवेकानंद रॉक (कन्याकुमारी में) कहा जाता है। यहां विवेकानंद ने तीन दिन तक भारत के भूतकाल और भविष्य पर ध्यान किया था।

  1. इस सपने से पहुंचे धर्म सम्‍मेनल

विवेकानंद ने एक दिन सपने में देखा कि उनके दिवंगत गुरू रामकृष्ण परमहंस समुद्र पार जा रहे हैं और उन्हें अपने पीछे आने का इसारा कर रहे हैं। नींद खुली तो विवेकानंद सपने की सच्चाई जानने को परेशान हो गए। उन्होंने गुरू मां शारदा देवी से इस पर मार्ग दर्शन मांगा। उन्होंने विवाकनंद को थोड़ा इंतजार करने को कहा। तीन दिन बाद शारदा देवी ने भी सपने में देखा कि रामकृष्ण गंगा पर चलते हुए कहीं जा रहे है और फिर ओझल हो जाते हैं। इसके बाद शारदा देवी ने विवेकानंद के गुरुभाई से कहा कि वह उन्हें विदेश जाने को कहें, ये उनके गुरू की इच्छा है। इसके बाद ही विवेकानंद ने धर्म सम्मेलन में जाने का फैसला लिया।

  1. शिष्‍यों से चंदा लेकर की शिकागों यात्रा

विवेकानंद जब चेन्नई लौटे, तब तक उनके शिष्यों ने उनकी शिकागो यात्रा के सारे इंतजाम कर लिए थे। शिष्यों ने अपनी गुरू की यात्रा के लिए चंदा कर धन जुटा लिया था। हालांकि, स्वामी विवेकानंद ने शिष्यों का जुटाया हुआ धन लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने शिष्यों से कहा कि वह ये सारा धन गरीबों में बांट दें। बताया जाता है कि इसके बाद विवेकानंद की अमेरिका यात्रा का पूरा खर्च राजपूताना के खेतड़ी नरेश ने उठाया था। कहा ये भी जाता है कि खेतड़ी नरेश ने ही धर्म सम्मेलन में जाने के लिए नरेंद्र को विवेकानंद का नाम दिया था। हालांकि, कुछ लोगों का ये भी मानना है कि नरेंद्र को विवेकानंद का नाम उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने दिया था।

  1. ये हुआ फिर शिकागों में

स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था। इसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की। विवेकानंद ने 31 मई 1893 को मुंबई से अपनी विदेश यात्रा शुरू की। मुंबई से वह जापान पहुंचे। जापान में नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो का उन्होंने दौरा किया। इसके बाद वह चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो शहर में पहुंचे थे।

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